Thursday 16 January 2014

अनपढ़ और राजनीति

यद्यपि अनपढ़ होना अज्ञानता का प्रमाण नहीं है तथापि अद्यतन रहने तथा समाज और वक़्त के साथ कंधे से कन्धा मिलकर चलने के लिए अनपढ़ होना किसी अभिशाप से कम भी नहीं । किसी भी समाज का विकास निरक्षरता की स्थिति में असंभव है और यदि समाज का मुखिया ही अनपढ़ हो तो यही विकास अकल्पनीय हो जाता है । आज चुनाव प्रक्रिया द्वारा ही ग्राम - प्रधान से लेकर राष्ट्रपति तक का चुनाव होता है । दुर्भाग्य से भारत में अँगूठा छाप नागरिक भी विधायक या सांसद का चुनाव लड़ सकता है । एक साक्षर समाज एक निरक्षर नेता द्वारा शासित होता है । अल्पविकसित सोच के कारण ये जनप्रतिनिधि स्वयं और अपने सम्बन्धियों के लाभों तक ही सीमित होकर रह जाते हैं, क्षेत्रीय विकास इनके चिंतन से अछूता रह जाता है ।

जिस देश में एक साधारण लिपिक की नौकरी के लिए भी शैक्षणिक योग्यता निर्धारित हो और विभिन्न परीक्षाओं के पश्चात् उस पद की प्राप्ति होती हो वहाँ जनप्रतिनिधियों के लिए शैक्षणिक योग्यता के मानदण्डों का अभाव क्या उचित है ?

राजनीति में प्रवेश की आश्चर्यजनक प्रथा है । आप भारत के नागरिक हों , जिस क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे हैं उस संसदीय क्षेत्र के मतदाता हों और कुछ आयु सम्बन्धी शर्तों को पूरा करने के बाद चुनाव लड़ सकते हैं, शैक्षणिक अयोग्यता कहीं भी बाधा नहीं बनती । एक और आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि राजनीति में कोई सेवानिवृत्ति आयु नहीं होती । यदि आप नेता बन गए हैं तो नेता ही मरेंगे , जबकि अन्य प्रत्येक विभाग में सेवानिवृत्ति की आयु निर्धारित है । जब एक आदमी साठ साल की उम्र के बाद एक कार्यालय का लेखा  - जोखा सही ढंग से नहीं रख सकता  तो एक नब्बे वर्षीय बुजुर्ग देश को कैसे चला सकता है !

अतः भारत में चुनाव सुधार एक प्राथमिक आवश्यकता है ।

राजनीति में दाखिल होने के लिए कम से कम कोई त्रिवर्षीय पाठ्यक्रम निर्धारित हो और उसके पश्चात् भी प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करके ही चुनाव लड़ने का प्रावधान हो । और अंत में चाहे सत्तर हो या पचहत्तर ... राजनीति में सेवानिवृत्ति की एक आयु भी निर्धारित होनी चाहिए ।

" प्रवेश "

सुखी कौन ?

इसे महज वैचारिक विकृति ही कहा जा सकता है कि आज सुख का पर्याय पद और पैंसे की प्राप्ति से लगाया जाता है । दुनिया की नजर में या तो वह व्यक्ति सुखी है जिसके पास उच्च पद है या वह जिसके पास खूब पैंसा है । यह बात किसी से छिपी नहीं है कि आज पैंसा और पद दोनों ही ईमानदारी की अपेक्षा बेईमानी से सुलभ है ।

एक व्यक्ति जिसके पास पैंसा तो बहुत है या वह किसी उच्च पद पर आसीन है लेकिन वो फिर भी सुखी नहीं है । वो चिंतित है अपने बच्चों के भविष्य को लेकर । उसकी संपत्ति उसके बेटे को इंजीनियरिंग की डिग्री नहीं दिला सकती । अपार सम्पदा होने के उपरांत भी उसके बेटे को इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश नहीं मिल पा रहा है और यदि धनप्रभाव से प्रवेश मिल भी गया तो  बेटे के पास इतनी योग्यता नहीं है कि वह उस परीक्षा को पास कर सके । इस उदहारण के अपवाद भी निश्चय ही होंगे । यहाँ तात्पर्य यह नहीं है कि पैंसे वाले या उच्च पदाधिकारी की संतान निकम्मी होती है । धनिक धन के अर्जन से अधिक उसकी सुरक्षा की समस्या से चिंतित रहता है और जहाँ चिंता का समावेश हो वहाँ सुख की कल्पना कैसे की जा सकती है !

क्लेश्युक्त जीवन भी सुखी नहीं कहा जा सकता है । धन - संपत्ति से भौतिक सुविधाएँ अर्जित की जा सकती हैं आत्मिक शांति नहीं । इन्सान आलिशान भवन खरीद सकता है किन्तु परिवार नहीं , मखमल की सेज खरीद सकता है - नींद नहीं , स्वादिष्ट भोजन खरीद सकता है - भूख नहीं , कई नौकर रख सकता है - किन्तु रिश्ते नहीं खरीद सकता । सुखी का अर्थ विलासिता से कदापि नहीं लगाया जा सकता ।

वहीं दूसरी ओर एक मजदूर की संतान अभावों में जीवन यापन करते हुये  भी उच्चतम शिक्षा प्राप्त कर लेती है, उच्च पदों पर आसीन होकर नयी मिसाल कायम करती है और समाज के लिये प्रेरणास्रोत बनती है । संतान के शिखर पर पहुँचने की ख़ुशी पिता के सीने का माप बढा  देती है । यह ख़ुशी मखमल की सेज पर सोने के सुख से कहीं अधिक स्थायी और आनंददायक है ।

मजदूर सुबह से शाम तक अपने काम में तल्लीन रहता है । उसे केवल अपने काम से मतलब है , उसे कुछ भी खोने या चोरी हो जाने का डर  नहीं है । जो भी कमाता है वो अगला सूरज दिखाने के लिये ही पर्याप्त होता है । उसे किसी से प्रतिस्पर्धा नहीं है और ना ही उसे भय है किसी से पिछड़ने का । जिसे न कुछ खोने का डर और ना ही पिछड़ने की चिंता , उससे अधिक सुखी भला कौन हो सकता है !!

इस लेख का तात्पर्य यह बिलकुल भी नहीं है कि हमें धन संचय नहीं करना चाहिये या प्रतियोगी नहीं होना चाहिये अपितु यह है कि भौतिक सुख की अपेक्षा आत्मिक सुख चिरस्थायी और आनंददायक  है ।  ~ प्रवेश ~

ज्यादा प्यार कौन करता है ?

अपने या किसी और के बच्चों से ये कभी  ना पूछें कि आप मम्मी - पापा में से किसे अधिक प्यार करते हैं या आपको मम्मी - पापा में से ज्यादा प्यार कौन करता है । आम तौर पर बच्चों से इस प्रकार के प्रश्न पूछे जाते हैं , ऐसा लगभग हर वर्ग में होता है । अभिजात वर्ग भी इससे अछूता नहीं है ।

यह आवश्यक है कि हम अपने बच्चों को तुलनात्मकता का पाठ पढ़ायें किन्तु हमें यह भी निर्धारित कर लेना चाहिये कि किस प्रकार की तुलना करना सिखाया जाय । बच्चों को जो कुछ भी सिखाया जाय उसका नकारात्मक परिणाम कदापि ना हो । बच्चे हमारे बिना सिखाये भी बहुत कुछ सीख लेते हैं । आपका बच्चा शक्कर और नमक के क्रिस्टल में अंतर करना स्वयं सीख जाता है, उसे महज एक बार चखने की आवश्यकता होती है , अगली बार वह नमक के क्रिस्टल को होठों के स्पर्श से ही वापस लौटा देता है ।

 बच्चे खाली कैसेट की तरह होते हैं, आप जो रिकॉर्ड करेंगे वही बजेगा । मम्मी - पापा में से कौन अच्छा , कौन ज्यादा प्यार करता है , आप किसे अधिक प्यार करते हैं , जैसे  सवाल पूछकर हम उनके मस्तिष्क में रिश्तों में अंतर के विचार का बीज बो देते हैं और यहीं से शुरू होता है माँ या पिता की ओर बच्चों का झुकाव । अक्सर ये देखा जाता है कि बच्चा या तो माँ के प्रति अधिक लगाव रखता है या पिता के प्रति । ऐसा कम ही देखने को मिलता है कि बच्चे का लगाव दोनों के लिये बराबर हो । इसका कारण बच्चों में रिश्तों की तुलनात्मकता का भाव ही हो सकता है ।

आज की दौड़ - भाग भरी जिंदगी में तथ्य इससे भी भिन्न हो सकते हैं । आपका बच्चा आपसे अधिक आपकी आया से घुल मिल सकता है । यह अलग बात है कि टीन ऐज में प्रवेश करने पर लड़की माँ से पिता की अपेक्षा अधिक खुलकर बात करती है जबकि लड़का दोनों से समान रूप से व्यवहार करता है ।  " प्रवेश "
                                                                                                     

रामलाल जी

आप बाबू हैं किसी द़फ्तर में | एक चपरासी है रामलाल, उम्र 50 वर्ष | आप रामलाल जी कहकर नहीं बुलाते हैं , जबकि आपको चाहिए | एक दिन रामलाल अपने बेटे के साथ द़फ्तर आता है , बेटा अफसर है | आप उसके बेटे को देखकर अपनी जगह खड़े हो जाते हैं | क्या आप ये आदेश दे सकते हैं ? " रामलाल साहब के लिए चाय - पानी ले आ ", जबकि आप जानते हैं कि रामलाल आपके उस साहब का पिता है | ध्यान रहे ... आपने आज तक रामलाल के साथ जी का इस्तेमाल नहीं किया है और ना ही कोई अन्य आदरसूचक शब्द | " प्रवेश "